संघवाद [Federalism] Class 10 NCERT Political science chapter 2 notes

Class 10 NCERT (राजनीतिक विज्ञान), चैप्टर 2 : संघवाद 

पहला चैप्टर था,  “ सत्ता की साझेदारीअगर आपने इस चैप्टर को अभी तक नहीं पढ़ा है तो सबसे पहले इसे पढ़ें और नोट बनाये। मैंने सभी पॉइंट को साधारण भाषा में कलेक्ट कर दिया है।  उसके बाद चैप्टर 2 संघवाद को पढ़े तभी अच्छी तरह से समझ में आएगा। वैसे मैंने जिस तरह से नोट्स बनाया है आप आराम से समझ जायेंगे। हमारे लिखें नोट्स से कोई भी प्रश नहीं छूट सकता है।

● संघीय व्यवस्था

संघीय सरकार व्यवस्था में सर्वोच्च सत्ता केंद्रीय प्राधिकार और उसकी विभिन्न अनुषांगिक इकाइयों के बीच बँट जाती है। 

आमतौर पर संघीय व्यवस्था में दो स्तर पर सरकारी होती हैं। इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है जिसके ज़िम्मे राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं। फिर, राज्य या प्रांतों के स्तर की सरकारें होती हैं जो शासन के दैनंदिन कामकाज को देखती हैं। सत्ता के इन दोनों स्तर की सरकारें अपने-अपने स्तर पर स्वतंत्र होकर काम करती हैं।

● एकात्मक व्यवस्था

एकात्मक व्यवस्था में शासन का एक ही स्तर होता है और बाकी इकाइयां उसके अधीन होकर काम करती हैं। इसमें केंद्रीय सरकार प्रांतीय या स्थानीय सरकारों को आदेश दे सकती है।

संघीय व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेषता

  1. सरकार दो या अधिक स्तर वाली होती है।
  2. अलग-अलग स्तर की सरकारें एक ही नागरिक समूह पर शासन करती हैं पर कानून बनाने, कर वसूलने और प्रशासन का उनका अपना-अपना अधिकार-क्षेत्र होता है।
  3. विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकार क्षेत्र संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णित होते हैं इसलिए संविधान सरकार के हर स्तर के आस्तित्व और प्राधिकार की गारंटी और सुरक्षा देता है।
  4. संविधान के मौलिक प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती। ऐसे बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही हो सकते हैं।
  5. अदालतों को संविधान और विभिन्न स्तर की सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार है। विभिन्न स्तर की सरकारों के बीच अधिकारों के विवाद की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय निर्णायक की भूमिका निभाता है।
  6. वित्तीय स्वायत्तता निश्चित करने के लिए विभिन्न स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग स्रोत निर्धारित है।
  7. संघीय शासन व्यवस्था के दोहरे उद्देश्य हैं देश की एकता की सुरक्षा करना और उसे बढ़ावा देना तथा इसके साथ ही क्षेत्रीय विविधताओं का पूरा सम्मान करना।

केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बंटवारा हर संघीय सरकार में अलग-अलग किस्म का होता है। 

संघीय शासन के व्यवस्था

संघीय शासन व्यवस्थाएं आमतौर पर दो तरीकों से गठित होती हैं।

  1. पहला तरीका, दो या अधिक स्वतंत्र राष्ट्रों को साथ लाकर एक बड़ी इकाई गठित करने के।
    1. इसमें दोनों स्वतंत्र राष्ट्र अपनी संप्रभुता के साथ करते हैं, अपनी अलग-अलग पहचान को भी बनाये रखते हैं और अपनी सुरक्षा तथा खुशहाली बढ़ाने का रास्ता अख्तियार करते हैं। 
    2. साथ आकर संघ बनाने के उदाहरण हैं – संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रेलिया इत्यादि। 
    3. इस तरह की संघीय व्यवस्था वाले राष्ट्रों में आमतौर पर प्रांतों को समान अधिकार होता है और वे केंद्र के मुकाबले ज्यादा ताकतवर होते हैं।
  1. दूसरा तरीका है,बड़े देश द्वारा अपनी आंतरिक विविधता को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन करना और फिर राज्य और राष्ट्रीय सरकार के बीच सत्ता का बंटवारा कर देना।
    1. भारत बेल्जियम और स्पेन इसके उदाहरण हैं।
    2. इस व्यवस्था में राज्यों के मुकाबले केंद्र सरकार ज्यादा ताकतवर हुआ करती है। 
    3. अक्सर इस व्यवस्था में विभिन्न राज्यों को समान अधिकार दिए जाते हैं पर विशेष स्थिति में किसी किसी प्रांत को विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं।

भारत में संघीय व्यवस्था

भारतीय संविधान ने भारत को राज्यों का संघ घोषित किया। इसमें संघ शब्द नहीं आया पर भारतीय संघ का गठन संघीय शासन व्यवस्था के सिद्धांत पर हुआ है।

संविधान में मौलिक रूप से दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था संघ सरकार (केंद्र सरकार) और राज्य सरकारें।

केंद्र सरकार को पूरे भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व करना था। बाद में पंचायतों और नगर पालिकाओं के रूप में संघीय शासन का एक तीसरा स्तर भी जोड़ा गया। 

किसी भी संघीय व्यवस्था की तरह भारत में भी तीन स्तर की शासन व्यवस्थाओं के अपने अलग-अलग अधिकार क्षेत्र हैं। संविधान में स्पष्ट रूप से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों को तीन हिस्से में बांटा गया है। यह तीन सूचियां इस प्रकार हैं:

  1. संघ सूची : इसमें प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, बैंकिंग, संचार और मुद्रा जैसे राष्टीय महत्व के विषय हैं। पूरे देश के लिए इन मामलों में एक तरह की नीतियों की जरूरत है। इस सूची के विषय पर सिर्फ केंद्र सरकार ही कानून बना सकती है।
  2. राज्य सूची : इसमें पुलिस, व्यापार, वाणिज्य,कृषि और सिंचाई जैसे प्रांतीय और स्थानीय महत्व के विषय हैं। इस सूची में राज्य सरकारें कानून बना सकती हैं। केंद्र भी कानून बना सकते हैं लेकिन वह तभी लागू जब राज्य सरकारें चाहेंगी।
  3. समवर्ती सूची : इस सूची में शिक्षा, वन, मजदूर-संघ, विवाह, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे विषय हैं। इस सूची में केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों कानून बना सकते हैं लेकिन टकराव की स्थिति में केंद्रीय कानून की मान्यता होगी।

हमारे संविधान के अनुसार बाकी बचे विषय केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में चले जाते हैं।

  • भारतीय संघ के सारे राज्यों को बराबर अधिकार नहीं है। 
  • कुछ राज्यों को विशेष दर्जा प्राप्त है। 
  • जैसे कि असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम अपने विशेष सामाजिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण भारत के संविधान के कुछ प्रावधानों (अनुच्छेद 371) के तहत विशेष शक्तियों का लाभ उठाते हैं।
  • यह विशेष शक्तियां स्वदेशी लोगों,  उनकी संस्कृति और सरकारी सेवाओं में अधिमान्य रोज़गार के भूमि अधिकारों के संरक्षण के संबंधों में स्पष्ट रूप से उपयोगी हैं।
  • भारतीय संघ के कई इकाइयों को बहुत कम अधिकार हैं। यह वैसे से छोटे इलाके हैं जो आकार के चलते स्वतंत्र प्रांत नहीं बन सकते। इन्हें किसी मौजूद प्रान्त में विलीन करना संभव नहीं है। चंडीगढ़ या लक्ष्यद्वीप अथवा देश की राजधानी दिल्ली जैसे इलाके इसी कोटी में आते हैं और इन्हें केंद्र शासित प्रदेश कहा जाता है। इन क्षेत्रों को राज्यों  वाले अधिकार नहीं हैं। इन इलाकों का शासन चलाने का विशेष अधिकार केंद्र सरकार को प्राप्त है।
  • अधिकारों के इस बँटवारे में बदलाव करना आसान नहीं है। अकेले संसद इस व्यवस्था में बदलाव नहीं कर सकती । ऐसे किसी भी बदलाव को पहले संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से मंजूर किया जाना होता है। फिर कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं से उसे मंजूरी करवाना होता है।
  • शक्तियों के बंटवारे के संबंध में कोई विवाद होने की हालत में फ़ैसला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में ही होता है। 
  • सरकार चलाने और अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए जरूरी राजस्व की उगाही के संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों को कर लगाने और संसाधन जमा करने आए अधिकार हैं।

संघीय व्यवस्था कैसे चलती है ?

  • संघीय व्यवस्था के कारगर कामकाज के लिए संवैधानिक प्रावधान जरूरी हैं। लेकिन इतना काफी नहीं है।
  • भारत में संघीय व्यवस्था की सफलता का मुख्य श्रेय यहाँ की लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र को देना होगा। संघवाद की भावना, विविधता का आदर और संग-साथ रहने की इच्छा का हमारे देश के साझा आदर्श के रूप में स्थापित होना सुनिश्चित हुआ।

भाषायी राज्य

  • नए राज्यों को बनाने के लिए 1950 के दशक में भारत के कई पुराने राज्यों की सीमाएँ बदली। ऐसा सुनिश्चित करने के लिए किया गया कि एक भाषा बोलने वाले लोग एक राज्य में आ जाएं। इसके बाद कुछ राज्यों का गठन भाषा के आधार पर नहीं बल्कि संस्कृति, भूगोल अथवा जातीयता (एथनिसिटी) की विभिन्नता को रेखांकित करने और उन्हें।आदर देने के लिए भी किया गया। इनमें नागालैंड, उत्तराखंड और झारखंड जैसे राज्य शामिल हैं।

भाषा नीति

  • संविधान में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया। हिंदी को राजभाषा माना गया पर हिंदी सिर्फ़ 40 प्रतिशत भारतीयों की मातृभाषा है इसलिए अन्य भाषाओं के संरक्षण के अनेक दूसरे उपाय किए गए।
  • संविधान में हिंदी के अलावा अन्य 21 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है।
  • राज्यों की भी अपनी राजभाषाएँ हैं। राज्यों का अपना अधिकांश काम अपनी राजभाषा में ही होता है।
  • संविधान के अनुसार सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग 1965 में बंद हो जाना चाहिए था पर अनेक गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों ने मांग की कि अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जाए। तमिलनाडु में तो इस मांग ने उग्र रूप भी ले लिया था।
  • केंद्र सरकार ने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी राजकीय कामों में प्रयोग की अनुमति देकर इस विवाद को सुलझाया। 

केंद्र – राज्य संबंध

  1. आजादी के बाद शुरुआत में केंद्र और राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार रही। तो स्पष्ट रूप से राज्य सरकारों ने स्वायत्त संघीय इकाई के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया।
  2. जब केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें रही तो केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकारों की अनदेखी करने की कोशिश की। उन दिनों केंद्र सरकार अक्सर संवैधानिक प्रावधानों का दुरूपयोग करके विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को भंग कर देती थी। यह संघवाद की भावना के प्रतिकूल काम था।
  3. 1990 के बाद काफी बदलाव आया। क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ। इसी दौर में गठबंधन सरकार की शुरूआत भी हुई। चूंकि किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला इसलिये प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों को क्षेत्रीय दलों समेत अनेक पार्टियों का गठबंधन बनाकर सरकार बनानी पड़ी। इससे सत्ता में साझेदारी और राज्य सरकारों की स्वायत्तता का आदर करने की नई संस्कृति पनपी।

भारत में विकेंद्रीकरण

  • हमारे देश में में सत्ता का दो स्तरों की चर्चा की गई है। संघ स्तर (केंद्र सरकार) और राज्य सरकारें।
  • बाद में तीसरे स्तर स्थानीय शासन बनाया गया यह सत्ता का विकेंद्रीकरण था।
  • जब केंद्र और राज्य सरकार से शक्तियां लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती हैं तो इसे सत्ता का विकेंद्रीकरण कहते हैं।
  • विकेंद्रीकरण के पीछे बुनियादी सोच यह है कि
    • अनेक मुद्दों और समस्याओं का निपटारा स्थानीय स्तर पर ही बढ़िया ढंग से हो सकता है। 
    • लोगों को अपने इलाके की समस्याओं की बेहतर समझ होती है।
    • लोगों को अच्छी जानकारी होती है कि पैसा कहाँ खर्च किया जाए।
    • चीजों का अधिक कुशलता से उपयोग किस तरह किया जा सकता है।
    • स्थानीय स्तर पर लोगों को फ़ैसलों में सीधे भागीदार बनाना भी संभव हो जाता है। इससे लोकतांत्रिक भागीदारी की आदत पड़ती है। 
    • स्थानीय सरकारों की स्थापना स्व-शासन के लोकतांत्रिक सिद्धांत को वास्तविक बनाने का सबसे अच्छा तरीका है।
  • गाँव और शहर के स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण की कई कोशिशें हुई हैं। 
  • सभी राज्यों में गावं के स्तर पर ग्राम पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गई थी।
  • इन्हें राज्य सरकारों के सीधे नियंत्रण में रखा गया था। इन स्थानीय सरकारों के लिए नियमित ढंग से चुनाव भी नहीं कराए जाते थे। इनके पास न तो अपना कोई अधिकार था न संसाधन। मतलब सत्ता का विकेंद्रीकरण नाममात्र से हुआ।
  • वास्तविक विकेंद्रीकरण की दिशा में 1992 में बड़ा कदम उठाया गया। संविधान में संशोधन करके लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के इस तीसरे स्तर को ज़्यादा शक्तिशाली और प्रभावी बनाया गया।
    • अब स्थानीय स्वशासी निकायों के चुनाव नियमित रूप से करना संवैधानिक बाध्यता है।
    • निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य तथा पदाधिकारियों के पदों में अनुसूचित जातियों,अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं।
    • कम से कम एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
    • हर राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतंत्र संस्था का गठन किया गया है।
    • राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का कुछ हिस्सा इन स्थानीय स्वशासी निकायों को देना पड़ता है। सत्ता में भागीदारी की प्रकृति हर राज्य में अलग-अलग है।
  • प्रत्येक गाँव में, एक ग्राम पंचायत होती है।
    • यह एक तरह की परिषद है जिसमें कई सदस्य और एक अध्यक्ष होता है। 
    • सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं और उन्हें सामान्यतया पंच कहा जाता है। इसका चुनाव गाँव अथवा वार्ड में रहने वाले सभी वयस्क लोग मतदान के जरिए करते हैं। यह पूरे पंचायत के लिए फ़ैसला लेने वाली संस्था है।
    • पंचायतों का काम ग्राम-सभा की देखरेख में चलता है। गाँव के सभी मतदान इसके सदस्य होते हैं। इसे ग्राम-पंचायत का बज़ट पास करने और इसके कामकाज की समीक्षा के लिए साल में कम से कम दो या तीन बार बैठक करनी होती है।
  • स्थानीय शासन का ढाँचा ज़िला स्तर तक का है।
    • कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति का गठन होता है। इसे मंडल या प्रखंड स्तरीय पंचायत भी कह सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके के सभी पंचायत सदस्य करते हैं। 
    • किसी जिले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद का गठन होता है। जिला परिषद में उस जिले से लोकसभा और विधानसभा के लिए चुने गए सांसद और विधायक तथा जिला स्तर स्तर की संस्थाओं के कुछ अधिकारी भी सदस्य के रूप में होते हैं।
    •  जिला परिषद का प्रमुख इस परिषद का राजनीतिक प्रधान होता है।
  • शहरों में नगर पालिका होती है। बड़े शहरों में नगरनिगम का गठन होता है।
    • नगरपालिका और नगरनिगम, दोनों का कामकाज निर्वाचित  प्रतिनिधि करते हैं। 
    • नगरपालिका प्रमुख नगरपालिका के राजनीतिक प्रधान होते हैं। 
    • नगरनिगम के ऐसे पदाधिकारी को मेयर कहते हैं।
  • पंचायतों के चुनाव तो नियमित रूप से होते हैं और लोग बड़े उत्साह से इसमें हिस्सा भी लेते हैं लेकिन ग्राम सभाओं की बैठकें नियमित रूप से नहीं होती। अधिकांश राज्य सरकारों ने स्थानीय सरकारों को पर्याप्त अधिकार नहीं दिए हैं। इस प्रकार हम स्वशासन की आदर्श स्थिति से काफी दूर हैं।

Class 10th Political Science Chapter

1.सत्ता की साझेदारी [ Power Sharing]

2.संघवाद [ Federalism ]

3.लोकतंत्र और विविधता [ Democracy and Diversity]

4.जाति, धर्म और लैंगिक मसले [ Gender, Religion and Cast ]

5.जन-संघर्ष और आंदोलन [Popular Struggles and Movements]

6.राजनीतिक दल [ Political Parties ]

7.लोकतंत्र के परिणाम [ Outcomes of Democracy ]

8.लोकतंत्र की चुनौतियां [ Challenges to Democracy ]

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